(हिंदुस्तान को वापसी)

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(हिंदुस्तान को वापसी)

जब हुज़ूर सैय्यद मखदूम अशरफ ने 750 हिजरी के बाद ज़ियारते हरमैन शरीफैन के वापसी पर पंडवा का सफर किया तो इस बार तीन या चार साल तक मुर्शिद की खिदमत में रहे।

रुखसत के वक़्त हादिए तरीक़त ने बशारत दी की तुमको मर्तबा ए गौसियत अता होगा, और उस वक़्त तुम मुहम्मद नूर (मखदूम ज़ादा) के लिए कुछ क़ुतबिय्यत की सिफारिश करना, और हज़रत को वह मक़ाम भी बतलाया जहां आपका मदफन मुबारक होगा, और हज़रत को बनज़र कश्फी दिखाया कि एक गोल तालाब है और उस के दरमियान नुक़्ता ए तिल के बराबर है और इरशाद फरमाया कि जिस जगह यह तिल है वही तुम्हारी मंज़िल खाक है, पंडवा से रुखसत हो कर हज़रत जौनपुर पहुंचे तो उस मक़ाम की जुस्तजू शुरू की जो बनज़रे कश्फी मदफन शरीफ के लिए दिखलाया गया था।

फिर अपने असहाब के साथ लेकर ओध की सम्त कूच किया कैइ मक़ामात देखे लेकिन वह जगह ना मिली यहां तक की मौज़अ भडोड में पहुंचे मलिक महमूद वहां के ज़मीनदार मलाज़िमत के लिए आए, उनके हाल पर बहुत इनायत फरमाई, उनके हमराह मक़ामे मदफन की तलाश में निकले एक गोल तालाब नज़र आया जिसको देख कर हज़रत ने फरमाया कि मुझ को पीरो मुर्शिद ने यही जगह दिखाई थी, मलिक महमूद ने अर्ज़ किया कि क़तआ ए आराज़ी बहुत फज़ा है, चारों तरफ पानी है लेकिन मुश्किल यह है कि यहां एक जोगी रहता है अगर उस से मुक़ाबला की ताक़त हो तो यहां पर क़याम हो सकता है वरना नहीं, हज़रत ने फरमाया("قُلْ جَآئَ الْحَقَّ وَزَ ھَقَ الْبَاطِلَ اِنَّ باَطِلَ کَانَ زَھُوْقَا")(सुरह इसरा आयत नंबर 81)

बे दीनों की जमाअत का हटाना क्या दुशवार है, आप ने एक खादिम को हुक्म दिया कि उस शख्स से कहो की यहां से चला जाए, जोगी ने जवाब भेजा कि मेरे साथ 500 चेले हैं मुझको क़ुव्वते विलायत से कोई हटा दे तो खैर वरना मुझको निकालना आसान नहीं है, आपका एक मुरीद जिनका नाम जमालुद्दीन है (उसे दिन मुरीद हुए थे) हज़रत ने फरमाया ऐ जमालुद्दीन जाओ और उस के इस्तदराज का जवाब दो जमालुद्दीन को तअम्मुल हुवा आप ने पास बुलाया और अपने मुंह से पान निकाल कर दस्ते मुबारक से उन के मुंह में रख दिया, पान खाते ही जमालुद्दीन पर एक अजीब हालत तारी हो गई और वह दिलेरी से मुक़ाबला के लिए चले, जोगी से जाकर कहा कि हम लोग करामात का इज़हार मुनासिब नहीं समझते लेकिन तुम्हारे हर एक इस्तदराज का जवाब देंगे, जोगी ने सबसे पहले यह शुअबदा दिखाया कि हर तरफ से काली चिंटियों का अंबोह जमालुद्दीन की तरफ बढ़ा, जमालुद्दीन ने उनकी तरफ निगाह की तो वह सब गायब हो गईं, उसके बाद शेरों का लश्कर नमूदार हुआ जमालुद्दीन ने कहा कि शेर मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं ? सब शेर भाग गए, मुख्तलिफ शुअबदा बाज़ियों के बाद जोगी ने अपनी लकड़ी हवा में फेंकी जमालुद्दीन ने हज़रत का असा मंगा कर हवा में उड़ा दिया वह असा उस लकड़ी को मार मार कर नीचे उतार लाया, जोगी सब हिलवों से अजीज़ हुवा तो अर्ज़ किया मुझ को हज़रत के पास ले चलो मैं ईमान लाऊंगा।

जमालुद्दीन हाथ पकड़ कर लाए और क़दमों पर गिरा दिया, आप ने कलमा ए शहादत की तलक़ीन की उसी वक़्त सब चेले मुसलमान हुए और अपने मज़हब की किताबें जला डालीं, हज़रत तालाब के किनारे एक जगह उन को इनायत फरमाई और अपने तरीक़े के मुताबिक़ रियाज़त व मुजाहिदात में मशगूल कर दिया, बाद अज़ां दर्वेशों को हुक्म दिया कि अपना अपना सामान यहां लओ सब को जगह तक़्सीम की ताकि हर एक अपने लिए जुदागाना हुजरा बना ले, मलिक महमूद ने चंद ही रोज़ में हज़रत के लिए वहीं खान्क़ाह बनवा दी, अपनी औलाद और खुद्दाम को मुरीद कराया, गिर्दो नवाह के सादात भी हाज़िर हो कर हल्क़ा-ए-अरदात में दाखिल हुए, तीन साल में वह तख्त ए गुलज़ार हो गया, उस इलाक़ा का नाम हज़रत ने रुहाबाद रखा, खान्क़ाह का नाम कसरताबाद रखा, उस कसरताबाद में एक मुख्तसर हुजरा आपके लिए मखसूस किया था, वह वहदताबाद से मौसूम हुवा।

हज़रत फरमाया करते थे कि आएंदा ज़माना में इसी जगह बड़ी रौनक़ होगी अकाबिर रोज़गार जालल गैब और बहुत से औलिया अल्लाह यहां आएंगे और फैज़ अंदोज़ होंगे वही मुक़द्दस मक़ाम आज ज़िला फैज़ाबाद (अभी जिला  अंबेडकर नगर) में किछौछा के नाम से मशहूर हुवा, और तालाब के वस्त में मरक़द मुबारक ज़ियारते गाह खलाएक़ है, अल्लाह जामिउल औराक़ को भी इस बारगाह पर हाज़िरी से मुशर्रफ फरमाए, (आमीन)


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