बरकाते नुबुव्वत का इज़हार 01
जिस तरह सूरज निकलने से पहले सितारों की रूपोशी, सुब्हे सादिक की सफ़ेदी, शफ़क़ की सुर्खी सूरज निकलने की खुश खबरी देने लगती हैं इसी तरह जब आफ्ताबे रिसालत के तुलूअ का ज़माना क़रीब आ गया तो अतराफ़े आलम में बहुत से ऐसे अजीब अजीब वाकिआत और खवारिके आदात बतौरे अलामात के ज़ाहिर होने लगे जो सारी काएनात को झंझोड़ झंझोड़ कर येह बिशारत देने लगे कि अब रिसालत का आफ्ताब अपनी पूरी आबो ताब के साथ तुलूअ होने वाला है।
चुनान्चे असहाबे फ़ील की हलाकत का वाकिआ, ना गहां बाराने रहमत से सर ज़मीने अरब का सर सब्ज़ो शादाब हो जाना, और बरसों की खुश्क साली दफ्अ हो कर पूरे मुल्क में खुशहाली का दौर दौरा हो जाना, बुतों का मुंह के बल गिर पड़ना, फारस के मजूसियों की एक हज़ार साल से जलाई हुई आग का एक लम्हे में बुझ जाना, किस्रा के महल का जल्ज़ला, और इस के चौदह कंगूरों का मुन्हदिम हो जाना, "हमदान" और "कुम" के दरमियान छे मील लम्बे छे मील चौड़े "बहरए सावह" का यकायक बिल्कुल खुश्क हो जाना, शाम और कूफा के दरमियान वादिये “समावह" की खुश्क नदी का अचानक जारी हो जाना, हुज़ूर ﷺ की वालिदा के बदन से एक ऐसे नूर का निकलना जिस से "बसरा" के महल रोशन हो गए। येह सब वाक़िआत इसी सिल्सिले की कड़ियां हैं जो हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी से पहले ही "मुबश्शरात" बन कर आलमे काएनात को येह खुश खबरी देने लगे कि
मुबारक हो वोह शह पर्दे से बाहर आने वाला है
गदाई को ज़माना जिस के दर पर आने वाला है
(क़िताब :- सीरते मुस्तफा (ﷺ) सफ़ह - 67)