(तर्के हुकूमत)

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(तर्के हुकूमत)

बचपन ही से हुज़ूर सैय्यद मखदूम अशरफ सिमनानी रज़ि अल्लाहु अन्ह की तबीयत सुलूक की फर्त माएल थी और उसी वक़्त से कसरते नमाज़ के खू गर थे यही वजह है कि अक्सर व बेश्तर ख्वाब में औलिया ए कामेलीन व बुज़ुर्गाने दीन की ज़ियारत से मुशर्रफ होते थे, और आप आलमे रोया ही में उन से फयूज़ो बरकात हासिल करते रहे अखिर कार एक शब ख्वाब में देखा कि हज़रत खिज़्र अलैहिस्सलाम फरमा रहे हैं कि अगर सल्तनते ईलाही मक़सूद है तो हिंदुस्तान जाओ और इस दुनियावी सल्तनत से हमेशा के लिए किनारा कशी एख्तियार करो इस ख्वाब और मुलाक़ात ने दिल नासबूर को सुकून बख्शा सुब्ह में अशगाले ज़रूरिया से फारिग होने के बाद वालिदा माजिदा की बारगाह में सलाम करने की गर्ज़ से हाज़िर हुए और अपने ख्वाब को ज़ाहिर करते हुए सफर की इजाज़त तलब की

आपकी वालिदा ने इरशाद फरमाया : एे मेरे बेटे तुम्हारे वुजूद में आने से क़ब्ल ख्वाजा अहमद यस्वी की रूहानियत ने मुझे आगाह किया था कि तेरे यहां एक लड़का पैदा होगा जिस के नूरे विलायत से दुनिया मुनव्वर होगी अब वह वक़्त आ गया है मुबारक मैंने अपना हक़ बख्शा और तुझे खुदा के सुपुर्द किया।

हयाते मखदूम अशरफ की इबारत से मालूम होता है कि उस वक़्त आपकी उम्र 25 साल थी यानी 733 हिजरी जबकि लताईफे अशरफी में है कि उस वक़्त आप की उम्र 23 साल थी यानी 731 हिजरी (तारीख में एख्तलाफ है) बहर हाल हुज़ूर सैय्यद मखदूम अशरफ जहांगीर सिमनानी ने वालिदा माजदा की इजाज़त पाने के बाद तख्तो ताज लाशकरो सिपाह सब अपने भाई सैय्यद आरफ को सुपुर्द किया और हिंदुस्तान की तरफ चलने का क़सद किया।

फिर आखरी मर्तबा मां की क़दम बोसी के लिए हाज़िर हुए, मां ने लिबासमां ने लिबास सूफियाना व दर्वेशाना देख कर बेअख्तियार बलाएं लेने लगीं और बोल उठी बेटे ! मेरी यह ख्वाहिश थी कि क़सरे शाही को इस अंदाज़ से अलविदा कहू जो शान सिमनान का तरीक़ा रहा है।

चुनांचे आप 12 हज़ार सिपाही और घोड़े खच्चर सत्तर और हाथी अपने हमराह लेकर सिमनान से रवाना हुए, तीन मंज़िल तै करने के बाद लशकरो सिपाह को वापस कर दिया फिर माउन्नहर होते हुए बुखारा, बुखारा से समरक़ंद पहुंचे, यहां तक कुछ घोड़े आप की सवारी में थे, लेकिन आप को घोड़ों से राहत के बजाए रुसवाई महसूस हो रही थी इसलिए फोक़रा को दे दिया।

फिर पैदल सफर करते हुए तमाम औलिया अल्लाह से फयूज़ो बरकात हासिल करते हुए हिंदुस्तान पहुंचे, इसी सफर बिहार में हज़रत मखदूम शरफुद्दीन याहिया मनीरी रहमतुल्लाहि अलैह की नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई और तबर्रुकात लेकर रवाना हुए। (कुछ किताबों में दोबारा सफरे हिंद के दौरान नमाज़े जनाज़ा पढ़ाना रक़म है)


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