(इबादत ए इलाही)
मुतज़्ज़किरा तमाम खूबियों के साथ-साथ हुज़ूर सैय्यद मखदूम अशरफ रज़ि अल्लाहु अन्ह के दिल में इबादते ईलाही का बेहद शौक़ और जज़्बा था आप के ज़िहानत और जौदते तबअ का यह आलम था कि एक तरफ इबादते ईलाही का ज़ौक़ व शौक़ तो दूसरी तरफ उमूरे हुकूमत में भी दिलचस्पी का लेना भी दोनों बातें मुतज़ाद हैं और वह भी एक कमसिन और नौजवान शख्स के दिल व दिमाग में एक वक़्त इकट्ठा हों बड़े हैरत की बात है।
हुज़ूर सैय्यद मखदूम अशरफ का यह हाल था कि तमाम मसरुफियात के बावजूद वक़्त निकाल कर इबादते ईलाही में मशगूल रहते थे आप की नौजवानी का एक बहुत मशहूर वाक़िआ है कि शहरे सिमनान से मुतस्सिल एक पहाड़ी के गार में आप मसरूफे इबादत थे आपने देखा कि आप की वालिदा मजिदा तशरीफ लाई है और इरशाद फरमाती है कि अशरफ मुस्तक़बिल क़रीब में इनने हुकूमत तुम्हारे हाथों में आने वाली है और अगर उमूरे हुकूमत से तुम्हारी बे रगबती का यही आलम रहा तो तुम किस तरह से शहंशाही के फराएज़ अंजाम दोगे यह अल्फाज़ जैसे आप की समाअत में टकराए तो आपने अपनी निगाह ऊपर उठा कर देखा और गुस्सा की हालत में इरशाद फरमाया तू मेरी मां हरगिज़ नहीं हो सकती क्योंकि मेरी वालिदा मुझे गफील करने की सई कभी हरगिज़ कर ही नहीं सकती तू यक़ीनन दैवता है जो अपने मकरो फरेब में गिरफ्तार करके यादे ईलाही से बेगाना करना चाहती है, आप के इन अल्फाज़ को सुन कर वह हेवला बहुत ज़ोर से हंसा और कहने लगा ऐ अशरफ मैं वाक़ई देवता हूं और अपने फरेब में असीर करना चाहती थी लेकिन तुम जीत गए और मैं हार कर शर्मिंदा व रेशमा हूं।