(काफिरों के मरन भोज का खाना खाना कैसा है ?)
अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि बरकातूह
सवाल : क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसअला में कि जो लोग काफिरों की मैय्यत पर खाना खाते हैं यानी काफिर जब मर जाता है उस के घर वाले जैसे मुस्लिम दसवां बिसवां चालीसावां वगैरा कराते हैं हिंदू काफिर भी बाद मैय्यत खाना बना के लोगों की दावत करके खिलाते हैं क्या ऐसे खाने का मुसलमानों को खाना दुरुस्त है या नहीं अगर नहीं तो ऐसा खाना खाने वाले पर इंदश्शरअ क्या हुक्म है ? मुदल्लल व मुफस्सल जवाब इनायत फरमा कर शुक्रिया का मौक़अ मरहमत फरमाएं।
साइल : मुहम्मद इमरान रज़ा पीली भीत शरीफ
व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाहि बरकातूह
जवाब : हिंदू मुर्दे के मरन भोज के मौक़अ पर हिंदू जमा होकर अपने धर्म के मुताबिक़ कुफ्रिया शिर्किया आमाल करते हैं उसमें शिरकत करना खाना पीना सख्त ना जायज़ व हराम है बल्कि कुफ्र तक ले जाने वाले काम हैं।
हज़रत शारेह बुखारी अल्लामा मुफ्ती मुहम्मद शरीफुल हक़ अमजदी अलैहिर्रहमा तहरीर फरमाते हैं कि : हिंदू मुर्दे के मरन भोज में शरीक होना हराम है बल्कि मंजरे इलल कुफ्र है, (यानी कुफ्र तक ले जाने वाले हैं) हिंदू यह खाना इसे नियत से करते हैं कि खाने वाले जो कुछ खाएंगे वह मैय्यत तक पहुंचेगा अगर मआ ज़ल्लाह किसी मुसलमान का यह एतिक़ाद हो गया कि हमने जो कुछ यहां खाया है वह उस हिंदू मुर्दा तक पहुंचेगा तो उसका ईमान जाता रहा क्योंकि उसने काफिर को सवाब का अहल जाना और यह कुफ्र है।(फतावा शारेह बुखारी जिल्द सानी सफा 629)
मैय्यत के साथ गल्ला फल वगैरा इस नियत से रखा जाता है कि अगर कोई इसे खाए तो इसका सवाब मैय्यत को मिलेगा, और उसकी आत्मा को शांति होगी, मआ ज़ल्लाह अगर हिंदू मैय्यत का गल्ला फल इस नियत से खाया या उसके मरन भोज में इस नियत से शरीक होना कि इसका सवाब मुर्दे को पहुंचेगा। लिहाज़ा मुसलमानों को हिंदुओं के यहां मरन भोज का खाना हरगिज़ हरगिज़ नहीं खाना चाहिए और जिसने खाया उस पर तौबा व इस्तगफार लाज़िम है और अगर सवाब का अहल जान कर खाया तो तजदीदे ईमान व तजदीदे निकाह भी लाज़िम है।वल्लाहु आलमु बिस्सवाब
अज़ क़लम
फक़ीर मुहम्मद अली क़ादरी वाहिदी
हिंदी अनुवादक
मुहम्मद रिज़वानुल क़ादरी अशरफी सेमरबारी दुदही कुशीनगर
मुक़ीम : पुणे महाराष्ट्र
21 माहे सफर 1447 हिजरी मुताबिक़ 16 अगस्त 2025 ब रोज़ शनिवार
मिन जानिब
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