मज़ाराते औलिया पर औरतों का जाना कैसा है?

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मज़ाराते औलिया पर औरतों का जाना कैसा है


 सवाल क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसअला में मज़ाराते औलिया पर औरतों का जाना कैसा है ? और अगर कोई औरत सही मानों में आसेब ज़दा हो तो क्या वह जा सकती है
 साईल  मोहम्मद सलमान रज़ा वाहिदी

 जवाब  सरकार आला हज़रत रज़ि अल्लाहू तआला अन्हू तहरीर फरमाते हैं कि 
 गुनिया में है यह ना पूछ कि औरतों का मज़ार पर जाना जायज़ है या नहीं ? बल्कि यह पूछो कि उस पर किस क़द्र लानत होती है अल्लाह तआला की तरफ से और किस क़द्र साहिबे क़ब्र की जानिब से जिस वक़्त वह घर से इरादा करती है लानत शुरू हो जाती है और जब तक वापस आती है मलाईका लानत करते रहते हैं
सिवा ए रोज़ा ए रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के किसी मज़ार पर जाने की इजाज़त नहीं वहां की हाज़री अलबत्ता सुन्नते जलीला अज़ीमा क़रीब बवाजिबात है और क़ुरआन करीम ने उसे मगफिरत का ज़रिया बनाया  (अलमलफूज़ सफा २४०/रज़वी किताब घर दिल्ली)

*مफतावा रज़विया शरीफ में है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं
عن اﷲ زوارت القبور
 क़ब्रों की ज़ियारत को जाने वाली औरतों पर अल्लाह की लानत है
 (मुसनद अहमद बिन हंबल हदीस ए हस्सान बिन साबित दारुल फिक्र बैरुवत / ३ / ४४२)

 और फरमाते हैं सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
 کنت نھیتکم عن زیارۃ القبور الافزوروھا
 मैंने क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था सुन लो अब उनकी ज़ियारत करो

 (सुनन इब्ने माजा अबवाबुल जनाएज़ एच  एम सईद कंपनी कराची)

 उलमा को एख्तिलाफ हुआ कि आया इस इजाज़त बादे इलाही में औरात भी दाखिल हुई या नहीं, असह यह है की दाखिल हैं कमा फिल बहरुर्राईक़ मगर जवान औरतों को ममनूअ है जैसे मसाजिद से और अगर तजदीदे हुज़्न मक़सूद हो तो मुतलक़न हराम
 अक़ूलू (सरकारे आला हज़रत रज़ि अल्लाहू तआला अन्हू फरमाते हैं मैं कहता हूं) क़ुबूरे अक़रबा पर खुसूसन बहाले क़ुर्बे अहद मिम्मात तजदीदे हुज़्न लाज़िमे निसा है और मज़ाराते औलिया पर हाज़री में अहदिश्शनाअतैन का अंदेशा या तर्के अदब या अदब में अफरात नाजायज़ तो सबील इतलाक़ मना है व लिहाज़ा गुनिया में कराहत पर जज़म फरमाया अलबत्ता हाज़री व खाक बोसी आस्ताने अर्शे निशाने सरकारे आज़म सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आज़मुल मंदुबात बल्कि क़रीब वाजिबात है, इससे ना रोकेंगे और तअदीले अदब सिखाएंगे

 (फतावा रज़विया जिल्द ९ सफा ५३८/दावते इस्लामी)

 एक दूसरी जगह फरमाते हैं  अब ज़्यारते क़ुबूर औरतों को मकरुह ही नहीं बल्कि हराम है, यह ना फरमाया कि वैसी को हराम है ऐसी को हलाल है, वैसी को तो पहले भी हराम था, इस ज़माना की किया तखसीस
मज़ीद मालूमात के लिए फतावा  रज़विया जिल्द९ सफा ५२४से मुताला करें

 मज़कूरा बाला इबारत से वाज़ेह हो गया कि औरतों का मज़ाराते औलिया पर जाना नाजायज़ व हराम है लेकिन अगर कोई औरत आसेब ज़दा हो तो बगर्ज़ ए इलाज जा सकती है, जब कि किसी और तरीक़े से ठीक ना हो, जैसा कि आज कल आमिलीन हैं कि रुपये का सवाल पहले करते हैं काम कुछ नहीं इल्ला माशा अल्लाह
 फिर बहुत से गरीब ऐसे हैं कि पैसा भी नहीं दे सकते तो अगर सही मानों में आसेबी है और मज़ाराते औलिया पर जाने से शिफा मिल रहा है, जैसे किछौछा शरीफ या दीगर मज़ाराते औलिया से लोगों को फायदा पहुंचता है तो शरअन इजाज़त है
 क्योंकि यह मजबूरी है जैसे गैर महरम को सत्र दिखाना हराम है मगर बगर्ज़ ए इलाज डॉक्टर को दिखाने की इजाज़त है और उसका सबूत क़ुरआन करीम से है
 इरशाद ए रब्बानी है 
 اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْکُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ بِهٖ لِغَيْرِ اللّٰهِ‌  ۚ  فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَلَا   اِثْمَ عَلَيْهِ  اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ
 उस ने यही तुम पर हराम किए हैं मुर्दार और खून और सूअर का गोश्त और वह जानवर जो गैर खुदा का नाम लेकर ज़िबह किया गया तो जो नाचार हो ना यूं की ख्वाहिश से खाए और ना यूं की ज़रूरत से आगे बढ़े तो उस पर गुनाह नहीं बेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है(कंज़ुल ईमान, सूरह बक़रा आयत नंबर १७३)

 यानी अल्लाह तआला ने मुर्दार खून और सूअर का गोश्त हराम फरमाया मगर साथ ही इरशाद फरमाया कि जो कोई ना चार हो यानी मजबूर तो खा सकता है, इस मिक़दार में कि उसकी जान बच जाए यानी ज़रूरत से ज़्यादा ना खाए और ना बगैर ज़रूरत यानी ख्वाहिश से खाए यूं ही वह ख्वातीन जो सही मानों में आसेब ज़दा हैं और उनका इलाज किसी और तरीक़े से नहीं हो पा रहा है तो वह इतने दिन के लिए मज़ाराते औलिया पर जा सकती हैं कि उनकी परेशानी दूर हो जाए
 मगर इसमे भी शर्तें हैं जो मुंदरजा ज़ैल हैं 
(१) > शौहर या किसी मोहरम के साथ हों
(२) बेहतर उम्दा लिबास में ना हों जिस से गैरों का दिल उनकी तरफ माइल हो
(३)बगैर ज़ीनत के हों ना कि सिंगार वगैरा कर के जाना जैसे कि अक्सर औरतें कर के जाती हैं
(४)  मर्द औरत का खलत मलत ना हो
(५)  पर्दे का मुकम्मल इंतज़ाम हो
 इन शर्तों के साथ अगर कोई औरत जाती है तो बवजहे मजबूरी रुखसत यानी इजाज़त है मगर याद रहे कि वहां जाकर अपनी मर्ज़ी से हाज़री ना लगाए, (यानी मकर कर के चिल्लाए शोर व गुल करे) जैसा कि मुशाहिदा है कि अक्सर औरतें मकर करती हैं और झूठ बोल कर भाई रिश्तेदार को बदनाम करती हैं, हां अगर शैतान उपर हाज़िर हो कर कुछ चिल्लाए तो कोई बात नहीं मगर उस वक़्त भी पर्दे का मुकम्मल खयाल रखा जाए
 और अगर कुछ ना हुआ हो यूं ही हाज़री लगाना औरतों को क़तअन जायज़ नहीं, जैसा कि अक्सर औरतें हर जुमेरात को मज़ाराते औलिया पर हाज़री लगाती रहती हैं वह भी उम्दा उम्दा लिबास पहन कर मुकम्मल सिंगार कर के यह शरअन जायज़ नहीं जैसा कि मज़कूरा बाला इबारत से ज़ाहिर है

والله تعالی اعلم بالصواب

अज़ कलम 

ताज मोहम्मद  क़ादरी वाहिदी  

हिन्दी ट्रान्सलेट   

मौलाना रिजवानुल क़ादरी अशरफी  सेमरबारी 


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